‘हो सकता है हम न पहुँच पाए
वैसे भी आज तक हम पहुँचे कहाँ हैं
हमें कहीं पहुँचने भी कहाँ दिया जाता है
हम किताबों तक पहुँचते-पहुँचते रह गए
न्याय की सीढ़ियों से पहले ही रोक दिए गए
नहीं पहुँच पाईं हमारी अर्जियाँ कहीं भी
हम अन्याय का घूँट पीते रह गए
जा रहे हम यह सोचकर कि हमारा एक घर था कभी
अब वह न भी हो
तब भी उसी दिशा में जा रहे हम
कुछ तो कहीं बचा होगा उस ओर
जो अपना जैसा लगेगा’
- संजय कुन्दन
अगस्त का महीना तो 15 अगस्त का ही महीना होता है। एक ऐसा महीना जब नए सिरे से आजादी के मायने को समझने की कोशिश होती है, जब आजादी के संघर्ष के अनेक पहलुओं पर विचार किया जाता है। इस साल का अगस्त का महीना भिन्न था। 15 अगस्त के पहले 5 अगस्त आया और आजादी के बाद, देश के नागरिकों के बड़े हिस्से की आजादी छिन जाने की पहली बरसी आई। 5 अगस्त 2019 को भारतीय जनता पार्टी ने लोक सभा मे अपने बहुमत का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर की जनता के जनवादी अधिकारों पर कुठाराघात करने के लिए किया था। इस हमले की एहमियत और उसके बाद जम्मू-कश्मीर, खास तौर से कश्मीर की जनता द्वारा सहन की गयी अनंत आपदाओं का लंबा वर्णन इस बुलेटिन मे आपको मिलेगा। लंबा तो है लेकिन एक साल भी लंबा होता है और एक साल की पीड़ा की दुख भरी दास्तान भी लंबी ही होती है।
अबकी साल का 5 अगस्त केवल पिछले साल के 5 अगस्त की बरसी ही नहीं थी बल्कि राम मंदिर के भूमि पूजन के लिए चुनी गयी तिथि थी। यह तिथि जान बूझकर चुनी गयी थी। विलकुल वैसे जैसे 6 दिसंबर की तिथि 1992 मे चुनी गयी थी दृ बाबा साहब डा भीमराव अंबेडकर के निर्वाण दिवस पर ही उनके संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर जबरदस्त प्रहार करते हुए, बाबरी मस्जिद को ढाया गया था। और 5 अगस्त को ही, जिस दिन भारत के धर्मनिरपेक्ष चरित्र पर बड़ा प्रहार करते हुए देश के अकेले मुस्लिम-बाहुल राज्य के दो टुकड़े करते हुए उसकी जनता के जनवादी अधिकारों को केवल अधिग्रहित ही नहीं गया था बल्कि इस अधिग्रहण के खिलाफ उनकी आवाज को पूरी तरह से बंद कर दिया गया था, उन्हे गूंगा बना दिया गया था। उसी 5 अगस्त को भूमि पूजन करके, देशवासियों से आरएसएस द्वारा संचालित भाजपा ने अपने हिन्दू राष्ट्र की स्थापना की ओर एक और कदम उठाया। उस हिन्दू राष्ट्र का स्वरूप कैसा होगा इसकी तस्वीर उस भूमि पूजन के मंच पर देखने को मिली दृ एक भी महिला, दलित, आदिवासी या पिछड़े के लिए उस पर कोई जगह नहीं थी। अल्पसंख्यक के होने का तो सवाल ही नहीं उठता है। और अगर इस सच्चाई के बारे मे याद दिलाने की किसी को आवश्यकता थी, तो 5 अगस्त की रात को ही, उत्तर पूर्वी दिल्ली के उस इलाके मे जहां फरवरी मे दंगा हुआ था, वहाँ के दंगा पीड़ितों के घरों के सामने, संघ परिवार के लोगों ने रात भर पटाखे छुड़ाए, अश्लील नारे लगाए, और उन लोगों को जिनके जख्म अब भी हरे थे अपने घरों को छोडकर चले जाने को चिल्ला चिल्ला कर कहा
तो अबकी साल, 15 अगस्त के आते आते, आजादी कैसे हासिल की पर विचार कम और उसे कैसे खोने लगे हैं इस पर अधिक विचार करने के लिए हम सब मजबूर हुए।
ऐसा नहीं कि प्रतिरोध को दबाया जा चुका है। प्रचार-प्रसार के माध्यमों मे जगह न होने पर भी, सरकार की दमनकारी नीति की बेरहमी के बावजूद, प्रतिरोध जिंदा है और, शायद, कुछ बढ़ भी रहा है। मजदूरों , किसानों, खेतमजदूरों और हर वर्ग की महिलाएं अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए, सड़कों पर दिखाई देने लगे हैं। स्कीम कर्मी, खास तौर से आशा बहनों ने शानदार 2 दिन की हड़ताल करके, अपनी हिम्मत का एक बार फिर परिचय दिया। हरियाणा मे तो आशा बहनों की हड़ताल आज तक चल रही है। इस बुलेटिन मे उनके जबरदस्त संघर्ष की कुछ रिपोर्टे हैं।
इस बीच, हिम्मती प्रतिरोध का परिचय एडवोकेट प्रशांत भूषण ने दिया। उन्होने सर्वोच्च न्यायालय और प्रमुख न्यायाधीश के बारे मे आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की थी उसके लिए सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हे अवमानना का दोषी पाया और उनसे माफी मांगने का निर्देश दिया। उन्होने माफी मांगने से साफ इंकार कर दिया और अब मामले की सुनवाई 10 सितंबर को होगी। इस मामले के कई बहुत महत्वपूर्ण पहलू हैं। पिछले एक साल मे सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार लोगों को निराश किया है। सीएए, कश्मीर का सवाल और अन्य महत्वपूर्ण मामलों पर उसने सुनवाई के लिए समय नहीं निकाला, राम जन्म भूमि मामले मे उसने एक ऐसा फैसला दिया जिससे कई कई सवाल खड़े हो गए हैं, करोना की महामारी, लाक डाउन और प्रवासी मजदूरों के साथ किया गया अमानवीय, कभी न भुलाये जाने वाले व्यवहार पर प्रभावशाली हस्तक्षेप न करना, इन तमाम बातों ने सर्वोच्च न्यायालय के प्रति लोगों के अटूट विश्वास को निश्चित रूप से चोट पहुंची है। इसलिए प्रशांत भूषण का अडिग रहना और उनके समर्थन मे हजारों वकील, वरिष्ठ अधिवक्ता, पूर्व न्यायाधीश, सम्मानित नागरिकों और बुद्धिजीवियों का उतरना इस बात का प्रमाण है कि जागरूकता की चिंगारियाँ सुलग रही हैं, आग भड़क भी सकती है।
हमारे संगठन से जुड़ी लाखों बहनों ने भी इस एक माह के समय मे महत्वपूर्ण पहल दिखाई है। 20 अगस्त , श्री नरेंद्र दाभोलकर की हत्या के दिन, अंध विश्वास के खिलाफ जन विज्ञान अभियान के साथ मिलकर शुरू की गयी मुहिम वक्त का तकाजा है। 28 अगस्त को, अन्य तमाम महिला संगठनों के साथ मिलकर ‘देश भर मे उठी आवाज - जीवन, जीविका और जनवाद’ का नारा बुलंद करके, हर तरह की हिंसा के विरुद्ध लड़ने का प्रण करके, महिलाओं की बड़ी ताकत को संगठित करने का प्रयास शुरू कर दिया है।
उस प्रयास का यह बुलेटिन भी एक हिस्सा ही है।
सुभाषिनी अली, संपादक