संपादकीय
सितंबर के महीने का अंत संघर्षो के साथ हो रहा है। किसानों का आंदोलन पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश के कई हिस्से और कर्नाटक मे फूट चुका है। हजारों किसान सड्को और रेल की पटरियों को जाम करके बैठे हैं और हटने का नाम नहीं ले रहे हैं। उनका आक्रोश स्वाभाविक और उचित है।
14 सितंबर को संसद का ‘बरसाती सत्र’ शुरू हुआ था। जनता के तमाम मुद्दों को उठाने के लिए, सरकार को जवाब देने के लिए मजबूर करने के लिए और करोड़ों बेरोजगार, भुखमरी के शिकार परिवारों को राहत दिलवाने के लिए तमाम सांसद दिल्ली पहुंचे। बहुत जल्द उन्हे पता चल गया कि सरकार कुछ बताने या जनता को कुछ देने के लिए तयार नहीं थी। उसका अजेंडा तो कुछ और ही था।
कोरोना की महामारी से निबटने मे अपनी राजनैतिक प्राथमिकताओं के चलते जनता के स्वास्थ्य और खुशहाली के प्रति सरकार की सम्पूर्ण उदासीनता के चलते उसकी ज़बरदस्त विफलता संसद में चर्चा का बड़ा मुद्दा था लेकिन सरकार ने उसे यह कह कर टाल दिया की मौते तो कम ही हुई थी। इस महामारी से पैदा बेरोजगारी के बारे मे उसने कहा की उसे कुछ पता ही नहीं है। इसी तरह से सरकार ने बड़ी बेशर्मी के साथ प्रवासी मजदूरों की मौतों के बारे मे भी यही कहा कि उसे कुछ पता नहीं। हर अहम सवाल का सरकार का यही उत्तर था। कितने डाक्टर मरे? पता नहीं। कितने किसानों ने आत्म हत्या की? पता नहीं? कितनी बच्चियों की पढ़ाई छूट गयी? पता नहीं।
दरअसल, संसद का सत्र सरकार ने जनता की परेशानियों को कम करने के लिए नहीं उन्हे और अधिक बढ़ाने के लिए ही बुलाया था । उसका मकसद था कई अध्यादेशों को कानूनी रूप देना और कई क़ानूनों मे संशोधन करना।
किसानों पर ज़बरदस्त कानूनी गाज गिरी। उनके उपज की खरीद से अपना पल्ला झाड़ते हुए, सरकार ने फसल की खरीद को निजी बाज़ार के लिए पूरी तरह से खोल दिया। यह जगजाहिर बात है कि किसान की सबसे बड़ी मजबूरी है कि उसे अपनी फसल की बिक्री उसके कटने के बाद जल्द से जल्द करनी होती है। उसके ऊपर कर्जा चुकाने का और तमाम भुगतान करने का बहुत दबाव होता है। यही नहीं, उसके पास फसल का भंडारण करने और उसे खराब होने से बचाने के साधन भी नहीं हैं। इसलिए देश भर के किसान लगातार एक ही मांग उठा रहे हैं – स्वामीनाथन आयोग के अनुसार उन्हें अपनी फसल का उचित भाव मिलना चाहिए। और यही करने के लिए सरकार तैयार नहीं है। कई सालों से किसान की फसलो की खरीद कम होती जा रही है। आंदोलन के बाद ही खरीद होती है। अब, नया कानून पारित करके, यह रास्ता भी बंद कर दिया गया है। अभी, सरकार द्वारा न्यूनतम खरीद मूऌ (MSP) की घोषणा के चलते, किसानों से खरीदने वाले व्यापारियों और कंपनियों पर थोड़ा बहुत दबाव है लेकिन जब फसल की खरीद पूरी तरह से बाज़ार के लिए खुल जाएगी तो कंपनियाँ ही उसके दाम को तय करेंगे। यही नहीं, इस कानून के फलस्वरूप, मंडियों मे काम पाने वाले लाखों गरीब ग्रामीण बेरोजगार लोगों का काम भी छिन जाएगा।
इस संदर्भ में बता दें कि नितीश कुमार ने 2006 मे बिहार के अंदर किसानो की फसलों की खरीद को बाज़ार के हवाले करने का काम किया था। इसका नतीजा है कि तब से आज तक बिहार के किसानों को MSP से बहुत कम भाव पर अपनी फसल बेचनी पड़ी है। जब नितीश कुमार से पूछा गया कि मंडियों की समाप्ति के बाद, वहाँ काम करने वालों का क्या हुआ तो उन्होने झूठ बोलते हुए कहा कि उनके वैकल्पिक रोजगार का इंतेजाम कर दिया गया है। सच्चाई तो यह है की केवल पंजाब की मंडियों मे ही 4 लाख से अधिक बिहारी मजदूर काम करने हर साल पहुँचते हैं। इन मंडियों मे लाखों गरीब महिलाएं अनाज की सफाई का काम करती हैं। जिन दानों को वे बीनती हैं, उन्ही से उनका और उनके परिवार के लोगों का पेट भरता है। जो बचता है उसे वे बेच देती हैं। अब नए कानून के क्रियान्वयन से जहां किसान की बदहाली बढ़ेगी, वहीं गरीब मजदूर कंगाल बन जाएंगे।
सरकार ने आवश्यक वस्तु अधिनियम में भी संशोधन करके उसकी परिधि से दाल, आलू और प्याज़ को बाहर कर दिया है। इसका मतलब है कि किसान से बड़ी कंपनियाँ यह चीज़ें कम दाम पर खरीदकर इनकी जमाखोरी करने के लिए स्वतंत्र हैं और, मुँहमाँगे दामों पर बेच सकते हैं।
इन किसान विरोधी क़ानूनों को पारित करने के साथ-साथ, सरकार ने श्रम क़ानूनों में भी संशोधन करके 300 से कम श्रमिकों के कारखानों के मालिकों को उनकी बिना अनुमति बैठकी/ छंटनी करने के लिए आज़ादी दे दी है। इसका मतलब है किअब श्रमिक मालिको की दया-माया पर काम करेंगे। यही नहीं, श्रमिकों और महिला श्रमिकों की खास तौर से तमाम सामाजिक सुरक्षाएँ अब सुरक्षित नहीं रहेंगी।
सरकार बड़े कारपोरेट को फायदा पहुंचाने पर कितनी उतावली है, उसका पता इस बात से चलता है कि उसने इन तमाम कानूनी कार्यवाहियों को अंजाम देने के लिए किस हद तक संवैधानिक और जनतान्त्रिक नियमों को रौंदने का काम किया है। चर्चा और बहस की अनुमति का सवाल नहीं; कमेटियों के पास इन महत्वपूर्ण कानूनों को भेजने का सवाल नहीं; राज्य सभा मे सांसदों को वोट देने का भी सवाल नहीं। जब सीपीआईएम के सांसद, रांगेश, ने मांग की कि किसान विरोधी कानून पर मत विभाजन हो तो इसकी अनुमति, जिसका दिया जाना अनिवार्य है, नहीं दी गयी और ‘हाँ’ ‘ना’ कहलवाकर और फिर ‘हाँ’ कहने वालों के बहुमत मे होने की घोषणा करके इन कानूनों को पारित किया गया। सरकार जानती थी कि मत विभाजन में उसके लिए खतरा पैदा होता तो उसने तमाम जनवादी नियमों पर बुलडोजर चलाकर किसानों और गरीबों के अधिकारों को रौंदने का काम किया।
सरकार की नीतियों के खिलाफ किसानों का आक्रोश फूट पड़ा है। AIDWA ने भी इस आंदोलन का तहे दिल से समर्थन करने का फैसला कर दिया है।
सरकार का रुख अभी बदला नहीं है। विरोध और आलोचना का सामना वह दमन से ही कर रही है। विपक्ष के नए तेवर से निबटने के लिए वह रोज़ नए नाम दिल्ली हिंसा के साथ जोड़ने का काम कर रही है। सीपीआई(एम) के नेता सीताराम येचूरी और ब्रिन्दा कारत, सीपीआईएमएल की कवित कृष्णनन, कांग्रेस के सलमान खुर्शीद, आप पार्टी के अमानतुल्लाह खान, स्वराज पार्टी के योगेन्द्र यादव के साथ तमाम बुद्धजीवियों के नाम लगातार जोड़े जा रहे हैं; उमर खालिद जैसे नौजवानों की गिरफ्तारी हो रही है। भीमा कोरेगाँव के मामले मे वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की जमानत की सुनवाई ही नहीं हो रही है और कई प्राध्यापक और सांस्कृतिक कर्मियों की गिरफ्तारी भी हो रही है।
लेकिन विरोध अब सुनाई और दिखाई दे रहा है। और आने वाले दिनों मे, यह बढ़ेगा; और सुनाई देगा; और दिखाई देगा।