संपादकीय
हमारे अपने कितने साथी नहीं रहे। झारखंड की हमारे संगठन की कोषाध्यक्ष, रेणु, कोरोना से लड़ते-लड़ते, दम तोड़ चुकी हैं। एडवा की केंद्रीय कार्यकारिणी की सदस्य, इंद्राणी मजूमदार और सी पी एम के महामंत्री, सीताराम येचूरी, के पुत्र, आशीष, 35 वर्ष की उम्र मे ही कोरोना के भेंट चढ़ गए। उत्तर प्रदेश की हमारी पूर्व मंत्री, मालती देवी, ने अपना पति खो दिया। हर राज्य की न जाने कितनी कार्यकर्ताओं ने अपनी जान खोई है या फिर उनके परिवारजन उनसे जुदा हुए हैं। इन सबको हम मिलकर अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
मार्च का महीना अब खतरनाक स्थितियों का संकेत देने लगा है और अप्रैल के आते आते कयामत के आसार का एहसास होने लगता है। पिछले साल भी ऐसा हुआ था और अबकी साल भी ऐसा ही हो रहा है। तब भी मोदी सरकार जनता के असीम दुख के लिए जिम्मेदार थी और आज भी है।
कोरोना की यह दूसरी लहर बता रही है कि पिछली लहर से सरकार ने कुछ भी नहीं सीखा। इसके भयानक परिणामों के शुरुआती पन्ने ही खुले हैं।
कोरोना एक जानलेवा महामारी है जिससे निबटने के लिए सरकार को बड़ी जिम्मेदारियाँ निभानी पड़ती हैं। जिन सरकारों ने इन जिम्मेदारियों को निभाने का काम किया है, उनकी जनता को जल्द राहत मिली है, उसको कम कीमत चुकानी पड़ी है। स्कैंडिनेविया के देश, न्यूजीलैंड, छोटा सा वियतनाम, चारों तरफ से घिरा क्यूबा, चीन जहां जहां स्वास्थ सेवाएँ पूरी तरह से निजीकरण के प्रभाव से बच पायी हैं, वहाँ वहाँ जनता को बचाने का काम किया जा सका है। हमारे अपने देश मे, केरल इस बात की जबरदस्त मिसाल है कि जहां सरकार ने स्वास्थ सेवाओं की मजबूती पर साधन और पैसा जुटाने का काम किया है वहाँ हर व्यत्ति का इलाज हासिल करने की संभावना को सुनिश्चित किया गया है।
भारत सरकार ने, लेकिन, लगातार उन गलतियों को दोहराया है जिनका खामियाजा बेबस जनता भर रही है। जनता को स्वास्थ लाभ पहुंचाना उसकी प्राथमिकता है ही नहीं, न पिछले साल थी और न अबके साल है।
पिछले साल, पहली जनवरी को भारत मे सबसे पहला कोरोना-पीड़ित मरीज केरल पहुंचा था। केरल की सरकार पूरी तरह से तैयार थी और लगातार अपनी जनता को भी तैयार कर रही थी। उसी समय अगर हवाई अड्डे और हवाई जहाजों की उड़ान बंद कर दी गयी होती, तो बहुत कुछ बच जाता। उसी समय अगर वैज्ञानिक तरीके से इस महामारी से निबटने की बात लगातार जनता को समझायी जाती तो बहुत कुछ बच जाता। लेकिन मोदी को तो ट्रम्प का स्वागत करना था और फरवरी के अंत मे ट्रम्प अपनी पूरी टीम के साथ आए। उनके स्वागत मे अहमदाबाद की सड़कों पर 1 लाख लोगों को खड़ा कर दिया गया और उनको सुनने के लिए स्टेडियम मे भी 1 लाख लोग पहुंचाए गए। उसके बाद, मध्य प्रदेश मे कांग्रेस की सरकार को गिराना था। दलबदलू विधायकों को हवाई जहाज से सुरक्षित स्थान पहुंचाना था, फिर वापस लाकर भाजपा की सरकार को गद्दी पर बिठाना था। जब यह सब हो गया, तो कोरोना की याद आई। थाली बजवाई गयी, दिया जलवाया गया और फिर, एक बैंग !! बगैर किसी चेतावनी के, बड़ा ही कठोर लाक डाउन लागू कर दिया गया।
सरकार की लापरवाही की बहुत आलोचना हुई लेकिन आम जनता ने इस आलोचना को गंभीरता से नहीं लिया। उसको तो कोरोना के फैलने की ‘असली’ वजह समझा दी गयी कि इसे तो तबलीगी जमात के लोग ही फैला रहे हैं, साजिश के तहत फैला रहे हैं, ‘कोरोना जेहाद’ चला रहे हैं। सरकारी प्रवक्ता, मंत्री, चैनलों के एंकर सबने दिन रात यही रट लगाई और एक बड़े झूठ को एक बड़े सच मे बदल दिया। जमात मे भाग लेने वालों के पीछे पुलिस-प्रशासन लग गया, उन्हे जेलों मे ठूसा गया। रोज उनके बारे मे नई कहानियाँ गढ़ी गईं कि वे अस्पताल मे नंगे घूम रहे हैं, नर्सों के साथ बेहूदगी कर रहे हैं, बिरयानी की फरमाइश कर रहे हैं। देश भर मे मुसलमानों के खिलाफ नफरत की आँधी चल पड़ी। कहीं सब्जी वाले पीटे गया, कहीं दुकानदार से खरीदना बंद हो गया, कहीं इलाज से वंचित रखा गया, कहीं मार ही डाला गया। आम तौर पर मान लिया गया कि कोरोना से पैदा मुसीबतों के लिए सरकार नहीं, मुसलमान जिम्मेदार हैं। अपने घर तक पैदल लौटने वाले भूखे मजदूर ने अपने पैरों के छालों के लिए भी उन्ही को जिम्मेदार ठहराया।
सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ने केवल सरकार की छवि को ही नहीं बचाया, बल्कि सरकार को अल्पसंख्यकों पर ही नहीं, जनता के हर हिस्से पर हमला करने का पूरा मौका भी दे डाला। मजदूरों, किसानों, महिलाओं, शिक्षकों, छात्रों सबके अधिकार छीन लिए सरकार ने। ध्रुवीकरण का शिकार अल्पसंख्यक तो बने ही लेकिन उससे पैदा माहौल मे सरकार की मार सब पर पड़ी, कोई नहीं बचा।
अब जब कोरोना फिर पलटकर आया है तो इस नई आफत के लिए सरकार की तमाम गलतियाँ सामने आ रही हैं। स्वास्थ सेवाओं मे जरा भी विस्तार नहीं किया गया है। वाह वाही लूटने के लिए साढ़े 6 करोड़ वैक्सीन दूसरे देशों को दान मे दे दिये गये हैं। 60,000 टन से अधिक आक्सीजन का निर्यात कर दिया गया है। 4 राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश मे हो रहे चुनाव के लिए किसी तरह के नियम लागू नहीं किए गए और बंगाल मे चुनाव 8 चरणो तक चलाया गया। डेढ़ महीने तक प्रधान मंत्री और गृह मंत्री चुनाव ब̧चार मे ही व्यस्त रहे और बंगाल के चुनाव को जीतने के लिए सब कुछ दांव पर लगा दिया गया, बंगाल की जनता का स्वास्थ भी। सोने मे सुहागा, हरिद्वार मे महाकुंभ, जो अगले साल होना था, इसी साल करवा दिया गया। देश भर के लोगों को गंगा नहाने का निमंत्रण दिया गया और 14 लाख से अधिक लोग पहुँच भी गए। गंगा मे खूब डुबकियाँ लगाई गईं, कुल्ला किया गया, थूका गया और जोरदार नारे लगाए गए। जाहिर है कि यह सब मास्क पहनकर नहीं किया जा सकता था।
अब चारों तरफ हाहाकार मची हुई है। भारत का प्रतीक जलती चिता बन गयी है। बिलखते लोगों की तस्वीर बन गयी है। दवा, बिस्तर और आक्सीजन के लिए दौड़ते-भागते हांफते लोगों की सूरतें बन गयी हैं।
अबकी बार सरकार अपने आपको बचा नहीं पा रही है। आज उसके अलावा जनता के गुस्से के निशाने पर और कोई नहीं है। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण का खेल अबकी बार नहीं चल पाया है।
इस भयानक स्थिति मे हम सब बहुत कुछ झेल रहे हैं। असीम दुख झेल रहे हैं। दूसरों की न थमने वाली मांगो की पूर्ति के पूर्ति की निराशा को झेल रहे हैं। जितनी मदद की जा सकती है, उसे पूरा करने की परेशानियाँ भी झेल रहे हैं।
लेकिन, इस सबके बीच, एक बड़ा सबक लेने और दूसरों के साथ, ज्यादा से ज्यादा, बड़ी सी बड़ी संख्या मे उसको बांटने की आवश्यकता को हमें अच्छी तरह से समझना होगा। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण ही इस सरकार को जिंदा रखे है, वही इसको जनता पर लगातार हमले करने का माहौल पैदा करता है। उससे बचना ही देश को बचाने का तरीका है। किसानों ने अपने अद्भुत आंदोलन के दौरान इस सबक को अच्छी तरह से सीखा और यही उनके इस आंदोलन की ताकत है, उसकी आधारशिला है।
हमे भी सीखना होगा और, दिन रात, दूसरों को सिखाना होगा।
सुभाशिणी अली